गुलाबी सर्दी में एक विरह गीत
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दृगजलों
को चक्षुओं
से मत बहाओ-
शीघ्र ही मैं लौट आऊँगा दोबारा।
कार्य
अपना पथ
प्रगति पर, है प्रिये सुन।
प्रेयसी
दो अनुमति
अब, शान से तुम-
कंठ से क्रंदन विरह का मत सुनाओ।
शीघ्र ही मैं लौट आऊँगा दोबारा।
एक
क्षत्रिय जा
रहा रणभूमि जैसे।
अदम्य
साहस शौर्य
भर कर दो तिलक तुम।
केश उलझे तुम दिखा कर मत रिझाओ-
शीघ्र ही मैं लौट आऊँगा दोबारा।
सब
जानकी
जलतीं विरह की अग्नि में हैं।
हर
यामिनी
पश्चात आतीं रश्मियाँ हैं।
यूँ तीर नयनों के हृदय पर मत चलाओ।
शीघ्र ही मैं लौट आऊँगा दोबारा।
आचार्य प्रताप