कई मुक्त सृजनकर्ताओं को पढ़ने के बाद एक कुंडलियाँ
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नहीं बरसाता है कहीं , छंदों पर अब नेह।
कविता की ये देह को , कुचल रहें हैं मेह।
कुचल रहें हैं मेह , आज छंदों का जीवन।
छंद देव के हेतु , समर्पित मेरा तन मन।
कविताओं में छंद , बहाते सदा सरसता।
छंद बिना अब नेह , कहूँ मैं नहीं बरसता।
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